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मैं अक्स-ए-आरज़ू था हवा ले गई मुझे - ज़ेब ग़ौरी कविता - Darsaal

मैं अक्स-ए-आरज़ू था हवा ले गई मुझे

मैं अक्स-ए-आरज़ू था हवा ले गई मुझे

ज़िंदान-ए-आब-ओ-गिल से छुड़ा ले गई मुझे

क्या बच रहा था जिस का तमाशा वो देखता

दामन में अपने ख़ाक छुपा ले गई मुझे

कुछ दूर तक तो चमकी थी मेरे लहू की धार

फिर रात अपने साथ बहा ले गई मुझे

जुज़ तीरगी न हाथ लगा उस का कुछ सुराग़

किन मंज़िलों से गर्द-ए-नवा ले गई मुझे

किस को गुमान था कि कहाँ जा रहा हूँ मैं

इक शाम आई और बुला ले गई मुझे

पर्वाज़ की हवस ने असीर-ए-फ़लक रखा

रुख़्सत हुई तो दाम में डाले गई मुझे

साकित खड़ा था वक़्त मगर तेशा-ज़न हवा

पत्थर की तह से 'ज़ेब' निकाले गई मुझे

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