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लहर लहर क्या जगमग जगमग होती है - ज़ेब ग़ौरी कविता - Darsaal

लहर लहर क्या जगमग जगमग होती है

लहर लहर क्या जगमग जगमग होती है

झील भी कोई रंग बदलता मोती है

कावा काट के ऊपर उठती हैं क़ाज़ें

गुन गुन गुन गुन परों की गुंजन होती है

चढ़ता हुआ पर्वाज़ का नश्शा है और मैं

तेज़ हवा रह रह कर डंक चुभोती है

गहरे सन्नाटे में शोर हवाओं का

तारीकी सूरज की लाश पे रोती है

देखो इस बे-हिस नागिन को छूना मत

क्या मालूम ये जागती है या सोती है

मेरी ख़स्ता-मिज़ाजी देखते सब हैं मगर

कितने ग़मों का बोझ उठाए होती है

किस का जिस्म चमकता है पानी में 'ज़ेब'

किस का ख़ज़ाना रात नदी में डुबोती है

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