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कब तलक ये शाला-ए-बे-रंग मंज़र देखिए - ज़ेब ग़ौरी कविता - Darsaal

कब तलक ये शाला-ए-बे-रंग मंज़र देखिए

कब तलक ये शाला-ए-बे-रंग मंज़र देखिए

क्यूँ न हर्फ़-ए-सब्ज़ ही लिख कर ज़मीं पर देखिए

फिर कहीं सहरा-ए-जाँ में खाइए ताज़ा फ़रेब

फिर सराब-ए-चश्मा ओ अक्स-ए-सनोबर देखिए

लेट रहिए बंद कर के आँखें जलती धूप में

और फिर सब्ज़ ओ सियह सूरज का मंज़र देखिए

फिर बरहना शाख़ों के साए में दम लीजे कहीं

रेंगते साँपों को अपने तन के ऊपर देखिए

दाद दीजे शौकत-ए-तामीर-ए-अर्श-ओ-फ़र्श की

और फिर बुनियाद-हस्त-ओ-बूद ढा कर देखिए

चाँदनी रातों में एक आसेब बन कर घूमिए

घर की दीवारों पर अपना साया बे-सर देखिए

है जिगर किस का जो इस तेग़-ए-हुनर की दाद दे

अपने हाथों ज़ख़्म खा कर अपना जौहर देखिए

बे-दिली की तह में ग़ोता मार कर बैठे हैं हम

'ज़ेब' फिर पानी पे कब उभरेगा पत्थर देखिए

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