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जाग के मेरे साथ समुंदर रातें करता है - ज़ेब ग़ौरी कविता - Darsaal

जाग के मेरे साथ समुंदर रातें करता है

जाग के मेरे साथ समुंदर रातें करता है

जब सब लोग चले जाएँ तो बातें करता है

शाम को देर से पहुँचूँ तो लगता है ख़फ़ा मुझ से

मुझ से बहुत बरहम हो ऐसी घातें करता है

मेरे सिवा शायद उस का भी कोई दोस्त नहीं

मेरी अपनी जाने क्या क्या बातें करता है

दिल ग़म से बोझल हो तो देखो फिर छेड़ें उस की

छींटे मुँह पे मार के क्या बरसातें करता है

और भी गहरी हो जाती है उस की सरगोशी

मुझ से किसी की आँखों की जब बातें करता है

मुझ को मोतियों से क्या लेना 'ज़ेब' समुंदर भी

जाने क्या मिरे अश्कों की सौग़ातें करता है

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