हो चुके गुम सारे ख़द्द-ओ-ख़ाल मंज़र और मैं
हो चुके गुम सारे ख़द्द-ओ-ख़ाल मंज़र और मैं
फिर हुए एक आसमाँ साहिल समुंदर और मैं
एक हर्फ़-ए-राज़ दिल पर आइना होता हुआ
इक कोहर छाई हुई मंज़र-ब-मंज़र और मैं
छेड़ कर जैसे गुज़र जाती है दोशीज़ा हवा
देर से ख़ामोश है गहरा समुंदर और मैं
किस क़दर इक दूसरे से लगते हैं मानूस 'ज़ेब'
नारियल के पेड़ ये साहिल के पत्थर और मैं
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