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गर्म लहू का सोना भी है सरसों की उजयाली में - ज़ेब ग़ौरी कविता - Darsaal

गर्म लहू का सोना भी है सरसों की उजयाली में

गर्म लहू का सोना भी है सरसों की उजयाली में

धूप की जोत जगाने वाले सूरज घोल पियाली में

एक सरापा महरूमी का नक़्शा तू ने खींच दिया

तल्ख़ी की ज़हराब चमक भी है कुछ चश्म-ए-सवाली में

रिश्ता भी है नश्व-ओ-नुमा का फ़र्क़ भी रौशन लम्हों का

सब्ज़ सरापा शाख़-ए-बदन और जंगल की हरियाली में

लर्ज़िश भी है सतह-ए-फ़लक पर गर्दिश करते सितारों की

वक़्त का इक ठहराव भी है इस औरंग-ख़याली में

शोला-दर-शोला सुर्ख़ी की मौजों को तह-दार बना

वो जो इक गहराई सी है रंग-ए-शफ़क़ की लाली में

आहिस्ता आहिस्ता इक इक बूँद फ़लक से टपकी है

खींच इक सन्नाटे की फ़ज़ा भी शबनम की उजयाली में

'ज़ेब' न बिन नक़्क़ाल-ए-आईना जीती-जागती आँखें खोल

अपना ज़ेहन उतार के रख दे रंगों की इस थाली में

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