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दिन है बे-कैफ़ बे-गुनाहों सा - ज़ेब ग़ौरी कविता - Darsaal

दिन है बे-कैफ़ बे-गुनाहों सा

दिन है बे-कैफ़ बे-गुनाहों सा

ना-कुशादा शराब-गाहों सा

कुछ फ़क़ीराना बे-नियाज़ी भी

कुछ मिज़ाज अपना बादशाहों सा

दिल दर-ए-मै-कदा सा वा सब पर

घर भी रखते हैं ख़ानक़ाहों सा

सब पे खुलते नहीं मगर मिरे शेर

हाल है कुछ तिरी निगाहों सा

आ गया है बयान में क्यूँकर

पेच-ओ-ख़म सारा तेरी राहों सा

कुछ नफ़स में शराब की सी महक

कुछ हवा में नशा गुनाहों सा

उजली उजली पहाड़ियों पर 'ज़ेब'

रंग उतरा है जल्वा-गाहों सा

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