अक्स-ए-फ़लक पर आईना है रौशन आब ज़ख़ीरों का
अक्स-ए-फ़लक पर आईना है रौशन आब ज़ख़ीरों का
गर्म-ए-सफ़र है क़ाज़-ए-क़ाफ़िला सैल-ए-रवाँ है तीरों का
कटे हुए खेतों की मुंडेरों पर अब्रक की ज़ंगारी
थकी हुई मिट्टी के सहारे ढेर लगा है हीरों का
तेज़ क़लम किरनों ने बनाए हैं क्या क्या हैरत पैकर
झील के ठहरे हुए पानी पर नक़्श उतरा तस्वीरों का
क्या कुछ दिल की ख़ाकिस्तर पर लिख के गई है मौज-ए-हवा
पढ़ने वाला कोई नहीं है इन मिटती तहरीरों का
रेग-ए-नफ़स का ज़ाइक़ा मुँह में गर्द-ए-मह-ओ-साल आँखों में
मैं हूँ 'ज़ेब' और चार तरफ़ इक सहरा है ताबीरों का
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