गुल-पोश बाम-ओ-दर हैं मगर घर में कुछ नहीं
गुल-पोश बाम-ओ-दर हैं मगर घर में कुछ नहीं
ये सब नज़र का नूर है मंज़र में कुछ नहीं
मौजों का इज़्तिराब हो या गौहर-ए-हयात
एहसास का फ़ुसूँ है समुंदर में कुछ नहीं
परछाइयों का नाच है वीरान सहन में
आसेब-ए-शब है और मिरे घर में कुछ नहीं
मंज़िल से बे-नियाज़ चले जा रहे हैं लोग
भटके हुओं की आँख के पत्थर में कुछ नहीं
दिन रात झाँकता है दरीचों से ज़ेहन के
अफ़्कार का जमाल है पैकर में कुछ नहीं
'ज़ौक़ी' गली गली में हैं तकिए फ़रेब के
अग़राज़ की सदा है क़लंदर में कुछ नहीं
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