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वो हो कैसा ही दुबला तार बिस्तर हो नहीं सकता - ज़रीफ़ लखनवी कविता - Darsaal

वो हो कैसा ही दुबला तार बिस्तर हो नहीं सकता

वो हो कैसा ही दुबला तार बिस्तर हो नहीं सकता

ग़लत है आदमी इस तरह लाग़र हो नहीं सकता

कभी आँसू का क़तरा मिस्ल-ए-गौहर हो नहीं सकता

ग़लत है अब्र-ए-नैसाँ दीदा-ए-तर हो नहीं सकता

मियाँ मजनूँ हों चाहे कोहकन हो दोनों ख़ब्ती थे

किसी का कुछ भी उन से ख़ाक पत्थर हो नहीं सकता

कमर जिस के न हो वो बार से क्यूँ कर चलेगा फिर

ख़िलाफ़-ए-अक़्ल है ये इस तरह पर हो नहीं सकता

कहो फिर ये कमर मोटी है सर छोटा है दिलबर का

नहीं तो फिर क़द-ए-जानाँ सनोबर हो नहीं सकता

वो ख़त्त-ए-शौक़ के जितने पुलंदे चाहे ले जाए

मुलाज़िम डाक-ख़ाने में कबूतर हो नहीं सकता

ज़रीफ़' आईना दे कर डार्विन-साहब को समझा दो

न हो जब तक शरीर इंसान बंदर हो नहीं सकता

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