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क़ैस कहता था यही फ़िक्र है दिन-रात मुझे - ज़रीफ़ लखनवी कविता - Darsaal

क़ैस कहता था यही फ़िक्र है दिन-रात मुझे

क़ैस कहता था यही फ़िक्र है दिन-रात मुझे

मार दे नाक़ा-ए-लैला न कहीं लात मुझे

रुख़-ए-रौशन पे फ़िदा और न सियह-ज़ुल्फ़ का ख़ब्त

न कोई दिन है मुझे और न कोई रात मुझे

मकतब-ए-इश्क़ में बैठा हुआ हल करता हूँ

जैसे अलजेब्रा के मिलते हैं सवालात मुझे

बोतलें बेचते नख़्ख़ास में देखा उस को

किस जगह जा के मिला पीर-ए-ख़राबात मुझे

ग़ुस्ल-ख़ाने में ये ग़स्साल से मुर्दा बोला

जेल है क़ब्र तो ये घर है हवालात मुझे

रिश्ता-ए-उम्र है कम और मिरी रस्सी है दराज़

आई चर्ख़े से ये आवाज़ न तू कात मुझे

नई तहज़ीब ने मा'शूक़ का फैशन बदला

कार्ड भेजूँ तो मयस्सर हो मुलाक़ात मुझे

दर्द-ए-दिल इश्क़ में है काहे से सेकूँ मैं ज़रीफ़'

न फ़लालीन ही मिलती है न बानात मुझे

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