क़ैस कहता था यही फ़िक्र है दिन-रात मुझे
क़ैस कहता था यही फ़िक्र है दिन-रात मुझे
मार दे नाक़ा-ए-लैला न कहीं लात मुझे
रुख़-ए-रौशन पे फ़िदा और न सियह-ज़ुल्फ़ का ख़ब्त
न कोई दिन है मुझे और न कोई रात मुझे
मकतब-ए-इश्क़ में बैठा हुआ हल करता हूँ
जैसे अलजेब्रा के मिलते हैं सवालात मुझे
बोतलें बेचते नख़्ख़ास में देखा उस को
किस जगह जा के मिला पीर-ए-ख़राबात मुझे
ग़ुस्ल-ख़ाने में ये ग़स्साल से मुर्दा बोला
जेल है क़ब्र तो ये घर है हवालात मुझे
रिश्ता-ए-उम्र है कम और मिरी रस्सी है दराज़
आई चर्ख़े से ये आवाज़ न तू कात मुझे
नई तहज़ीब ने मा'शूक़ का फैशन बदला
कार्ड भेजूँ तो मयस्सर हो मुलाक़ात मुझे
दर्द-ए-दिल इश्क़ में है काहे से सेकूँ मैं ज़रीफ़'
न फ़लालीन ही मिलती है न बानात मुझे
(1221) Peoples Rate This