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मजनूँ का जो ऐ लैला जूता न फटा होता - ज़रीफ़ लखनवी कविता - Darsaal

मजनूँ का जो ऐ लैला जूता न फटा होता

मजनूँ का जो ऐ लैला जूता न फटा होता

पीछे तिरे नाक़े के क्यूँ बरहना-पा होता

बे-फ़ाएदा ग़ुल मचता क्या जानिए क्या होता

गर उन की गली होती और मेरा गला होता

होता अगर आदम का दुनिया में कोई भाई

नस्ल-ए-बनी-आदम का वल्लाह चचा होता

गर क़ैस की वहशत का कुछ ऊँट असर लेता

लैला को गिरा देता और भाग खड़ा होता

मुफ़्लिस से ज़ियादा-तर मुनइ'म ही गुरसना हैं

क्यूँ रोज़ हवा खाते गर पेट भरा होता

वो बन के मसीहा भी अच्छा जो न कर सकते

बीमार तिरे हक़ में ये और बुरा होता

मादूम दहन होता मफ़क़ूद कमर होती

मा'शूक़ ज़रीफ़' ऐसा होता भी तो क्या होता

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