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करेंगे सब ये दा'वा नक़्द-ए-दिल जो हार बैठे हैं - ज़रीफ़ लखनवी कविता - Darsaal

करेंगे सब ये दा'वा नक़्द-ए-दिल जो हार बैठे हैं

करेंगे सब ये दा'वा नक़्द-ए-दिल जो हार बैठे हैं

ख़फ़ीफ़ा में तुम्हारे आशिक़-ए-नादार बैठे हैं

अजब क्या आशिक़ों को दिल में ये मा'शूक़ कहते हों

ये क्यूँ घर घेर कर मेरा ख़ुदा की मार बैठे हैं

शब-ए-फ़ुर्क़त का इक दरिया-ए-ग़म है बीच में हाइल

जो मैं इस पार बैठा हूँ तो वो उस पार बैठे हैं

कोई है इत्तिलाअ' इस वक़्त कर दे जा के थाने पर

वो मेरे क़त्ल पर खींचे हुए तलवार बैठे हैं

सफ़ेदी ख़ाना-ए-दिल में सियह-कारों के फेरेंगे

नहीं मिम्बर पे वाइ'ज़ पाड़ पर मे'मार बैठे हैं

पकड़ कर कान अपना दर्स-गाह-ए-इश्क़ में आशिक़

हज़ारों बार उट्ठे हैं हज़ारों बार बैठे हैं

कहा करते थे वालिद क़ैस के फ़र्त-ए-मोहब्बत में

नहीं मा'लूम किस जंगल में बर-ख़ुरदार बैठे हैं

ज़रीफ़' अब फ़ाएदा क्या शाइ'रों को सर्दी खाने से

ग़ज़ल हम पढ़ चुके घर जाएँ क्यूँ बे-कार बैठे हैं

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