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दुनिया की सल्तनत में ख़ुदा के ख़िलाफ़ हैं - ज़मीर काज़मी कविता - Darsaal

दुनिया की सल्तनत में ख़ुदा के ख़िलाफ़ हैं

दुनिया की सल्तनत में ख़ुदा के ख़िलाफ़ हैं

शहर-ए-चराग़ में जो हवा के ख़िलाफ़ हैं

फ़र्सूदा-ओ-फ़ुज़ूल रिवायत के नाम पर

अपने तमाम दोस्त वफ़ा के ख़िलाफ़ हैं

ख़ामोशियों के दश्त में क्यूँ चीख़ते हो तुम

क़ानून सब यहाँ के सदा के ख़िलाफ़ हैं

कब से उड़ा रही हैं क़नाअ'त की धज्जियाँ

ये हाजतें जो सब्र-ओ-रज़ा के ख़िलाफ़ हैं

इंसानियत की ख़ैर हो यारब ज़मीन पर

कुछ बे-शुऊर लम्हे फ़ज़ा के ख़िलाफ़ हैं

लब के तमाम हर्फ़ हुए बे-असर 'ज़मीर'

हालात-ए-ज़िंदगी के दुआ के ख़िलाफ़ हैं

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