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राहतों के धोके में इज़्तिराब ढूँडे हैं - ज़मीर अतरौलवी कविता - Darsaal

राहतों के धोके में इज़्तिराब ढूँडे हैं

राहतों के धोके में इज़्तिराब ढूँडे हैं

हम ने अपनी ख़ातिर ही ख़ुद अज़ाब ढूँडे हैं

ये तो उस की आदत है रोज़ गुल मसलता है

आज भी मसलने को कुछ गुलाब ढूँडे हैं

रात आँधी आने पर उड़ गए थे ख़ेमे सब

ग़ाफ़िलों ने मुश्किल से कुछ तनाब ढूँडे हैं

तेरी हुक्मरानी भी ख़त्म होने वाली है

हम ने कुछ किताबों में इंक़लाब ढूँडे हैं

मेरे कुछ सवालों के तुम ने एक मुद्दत में

मसअलों से हट कर ही क्यूँ जवाब ढूँडे हैं

काले कारनामे और काला मुँह छुपाने को

कुछ सफ़ेद-पोशों ने कुछ नक़ाब ढूँडे हैं

देखिए 'ज़मीर' हम भी हैं अजब ही दीवाने

छोड़ कर हक़ीक़त को हम जवाब ढूँडे हैं

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