ज़िंदगी यूँ भी कभी मुझ को सज़ा देती है
ज़िंदगी यूँ भी कभी मुझ को सज़ा देती है
एक तस्वीर किताबों से गिरा देती है
आप अच्छे हैं बुरे हैं कि फ़क़त बार-ए-हयात
फ़ैसला ख़ल्क़-ए-ख़ुदा ख़ुद ही सुना देती है
कितने नादीदा मनाज़िर से उठाती है नक़ाब
रात आती है तो ख़्वाबों को जगा देती है
अब भी मेहराब-ए-तमन्ना में कसक माज़ी की
शाम होते ही कोई शम्अ' जला देती है
इश्क़ है रोग ही ऐसा कि नहीं इस का इलाज
आतिश-ए-दिल को दवा और बढ़ा देती है
सीना-ए-संग में पोशीदा सदा-ए-फ़र्हाद
एक इक ज़र्ब पे शीरीं का पता देती है
जिस की आग़ोश में हम रोज़ मिला करते थे
अब वही शाम हर एक शाम सदा देती है
मैं कहाँ और कहाँ शेर-ओ-सुख़न है 'ज़ाकिर'
कोई ताक़त है जो लफ़्ज़ों को जिला देती है
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