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ज़मीन-ए-इश्क़-ओ-वफ़ा पे उड़ती हिकायतें भी नई नहीं हैं - ज़ाकिर ख़ान ज़ाकिर कविता - Darsaal

ज़मीन-ए-इश्क़-ओ-वफ़ा पे उड़ती हिकायतें भी नई नहीं हैं

ज़मीन-ए-इश्क़-ओ-वफ़ा पे उड़ती हिकायतें भी नई नहीं हैं

लहू की गर्दिश में रक़्स करती रिफाक़तें भी नई नहीं हैं

मोहब्बतों के ये फ़ैसले तो ख़ुदा-ए-बर्तर ने लिख रखे हैं

कहाँ तलक हम बचाएँ दामन ये चाहतें भी नई नहीं हैं

अगरचे देखे हैं ज़ुल्फ़-ओ-लब के हसीन सपने तो क्या ग़लत है

नज़र के खेतों में ख़्वाब बोने की हसरतें भी नई नहीं हैं

बहार आते ही यूँ लगा कि चमन दरीदा-दहन हुआ है

गुलाब-रुत में चमन पे नाज़िल ये आफ़तें भी नई नहीं हैं

पता नहीं क्यूँ वो ख़ुश बहुत है फ़ुज़ूल मसनद-नशीन हो कर

सगान-ए-मसनद की फ़ातेहाना हिमाक़तें भी नई नहीं हैं

झुकी नज़र से कलाम कर के असीर कर ले वो आशिक़ों को

नज़र नज़र में नज़र चुराने की आदतें भी नई नहीं हैं

सनम की इक इक अदा पे 'ज़ाकिर' नई ग़ज़ल की है क्या ज़रूरत

शरारतें भी नई नहीं हैं नज़ाकतें भी नई नहीं हैं

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