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उस ने निगाह-ए-लुत्फ़-ओ-करम बार बार की - ज़ाकिर ख़ान ज़ाकिर कविता - Darsaal

उस ने निगाह-ए-लुत्फ़-ओ-करम बार बार की

उस ने निगाह-ए-लुत्फ़-ओ-करम बार बार की

अब ख़ैरियत नहीं है दिल-ए-बे-क़रार की

डर ये है खुल न जाए कहीं राज़-ए-इश्क़ भी

निभने लगी है उन से मिरे राज़दार की

सब के नसीब में है कहाँ मौज-ए-दर्द-ओ-ग़म

मख़्सूस हैं इनायतें परवरदिगार की

यादों की अंजुमन में उन्हें भी बुला लिया

इक शाम यूँ भी हम ने बहुत यादगार की

जब हम ही फ़स्ल-ए-गुल में चमन से निकल गए

फिर क्यूँ सुना रहे हो कहानी बहार की

'ज़ाकिर' हम अपना दिल भी वहीं छोड़ आए हैं

किस दर्जा पुर-कशिश थी फ़ज़ा उस दयार की

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