रात का हुस्न भला कब वो समझता होगा
रात का हुस्न भला कब वो समझता होगा
चाँद बे-फ़ैज़ अँधेरों में निकलता होगा
चंद लम्हों की रिफ़ाक़त का असर है शायद
दर्द मीठा सा कहीं और भी उठता होगा
हिचकियों से यही अंदाज़ा लगाया हम ने
याद कोई तो दिल-ओ-जान से करता होगा
साथ गुज़रे हुए मौसम का तसव्वुर ले कर
बारिशों में वो हर एक साल बहकता होगा
बस यही सोच के हर रोज़ लिखा करता हूँ
वो मिरा ग़म मिरे अशआ'र में पढ़ता होगा
उस के अश्कों का गुनाहगार मैं हो जाऊँगा
वो मुझे याद अगर कर के सिसकता होगा
याद होंगी उसे भूली हुई क़स्में 'ज़ाकिर'
वो मिरे ज़िक्र पे चुप-चाप ठहरता होगा
(1275) Peoples Rate This