पलकों पे तैरते हुए महशर तमाम-शुद
पलकों पे तैरते हुए महशर तमाम-शुद
आँखें खुलीं तो ख़्वाब के मंज़र तमाम-शुद
ज़िंदा है भूक आज भी इफ़रीत की तरह
तीर-ओ-तफ़ंग-ओ-लश्कर-ओ-ख़ंजर तमाम-शुद
लोगो तुम अपने ज़र्फ़ से बढ़ कर दिया करो
इस बार ज़ख़्म भर गए नश्तर तमाम-शुद
तहरीर कर रहा था कहानी जुनूँ की मैं
लेकिन ख़याल-ओ-फ़िक्र का मेहवर तमाम-शुद
ख़ुद अपना अक्स आइनों में ढूँडते हैं लोग
शीशा-गरों के शहर में पैकर तमाम-शुद
जब धूप ओढ़े बैठी हो ग़ुर्बत क़तार में
समझो ख़ुदी का आख़िरी ज़ेवर तमाम-शुद
'ज़ाकिर' रची-बसी कोई साज़िश फ़ज़ा में थी
उड़ने से पेशतर मेरा शहपर तमाम-शुद
(1743) Peoples Rate This