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मुद्दत हुई न मुझ से मिरा राब्ता हुआ - ज़ाकिर ख़ान ज़ाकिर कविता - Darsaal

मुद्दत हुई न मुझ से मिरा राब्ता हुआ

मुद्दत हुई न मुझ से मिरा राब्ता हुआ

ख़ुद को तलाश करते हुए गुम-शुदा हुआ

सब रहनुमा है कौन किसी और की सुने

मंज़िल से दूर यूँ ही नहीं क़ाफ़िला हुआ

ऐसे मिला वो आज मुझे अजनबी लगा

मिलना भी जैसे उस का कोई सानेहा हुआ

लगती है अब फ़ुज़ूल तिरे क़ुर्ब की दुआ

होना था जब क़रीब तभी फ़ासला हुआ

मैं ने तो बस कहा था उसे जानता हूँ मैं

फिर शहर में हम ही पे बड़ा तब्सिरा हुआ

जोश-ए-जुनूँ में चुपके से शह-रग ही काट ली

कहने को को लोग कहते रहे हादिसा हुआ

ख़ामोश दो दिलों में कहीं मेल था ज़रूर

वर्ना था क्या सबब कि जुदा रास्ता हुआ

'ज़ाकिर' ये ज़िंदगी की हक़ीक़त सराब है

जब आगही मिली तो यही तजरबा हुआ

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