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ख़्वाब-नगर के शहज़ादे ने ऐसे भी निरवान लिया - ज़ाकिर ख़ान ज़ाकिर कविता - Darsaal

ख़्वाब-नगर के शहज़ादे ने ऐसे भी निरवान लिया

ख़्वाब-नगर के शहज़ादे ने ऐसे भी निरवान लिया

चाँद सजाया आँखों में और रात को सर पर तान लिया

दुनिया-दारी खेल-तमाशा इश्क़-ओ-मोहब्बत राहत-ए-जाँ

आग में अपनी जल कर हम ने बन बरगद ये ज्ञान लिया

वो आँखें ही ऐसी थीं हम डूब गए अनजाने में

जान के किस ने टूटी-फूटी कश्ती में तूफ़ान लिया

कौन सा पर्दा हम से था तुम दिल की बातें कह सकते थे

मुफ़्त में तुम ने बात बढ़ाई ग़ैरों का एहसान लिया

हिर्स-ओ-हवस का दौर है इस में बिकते हैं सब रिश्ते-नाते

जान पे अपनी क्यूँ कर तुम ने औरों का बोहतान लिया

वाक़िफ़ कब था प्यार से पहले लेकिन 'ज़ाकिर' प्यार के बा'द

क़िस्मत रेखा हुस्न-ओ-अदा और नाज़-ओ-जफ़ा सब जान लिया

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