ख़याल-ओ-ख़्वाब में डूबी दीवार-ओ-दर बनाती हैं
ख़याल-ओ-ख़्वाब में डूबी दीवार-ओ-दर बनाती हैं
कुँवारी लड़कियाँ अक्सर हवा में घर बनाती हैं
कभी ग़म्ज़ा कभी इश्वा कभी शोख़ी कभी मस्ती
अदाएँ बाँकपन में संदली पैकर बनाती हैं
हिसें आँचल में पिन्हाँ कहकशाएँ रात होने पर
घनी ज़ुल्फ़ों पे रक़्साँ दिलरुबा मंज़र बनाती हैं
झुकी पलकों पे ठहरे आँसुओं पर हो गुमाँ ऐसा
कि जैसे सीपियाँ आग़ोश में गौहर बनाती हैं
मोहब्बत का करिश्मा है कि उल्फ़त की करामत है
हसीनाएँ तख़य्युल में मह-ओ-अख़्तर बनाती हैं
लगेगी पार कैसे कश्ती-ए-दिल सोच लो 'ज़ाकिर'
तलातुम-ख़ेज़ नज़रें रोज़ जब साग़र बनाती हैं
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