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फ़िक्र में डूबे थे सब और बा-हुनर कोई न था - ज़ाकिर ख़ान ज़ाकिर कविता - Darsaal

फ़िक्र में डूबे थे सब और बा-हुनर कोई न था

फ़िक्र में डूबे थे सब और बा-हुनर कोई न था

ज़िंदगी की शाख़ पर पुख़्ता समर कोई न था

गा रहे थे अपनी अपनी धुन में सब ग़ज़लें मगर

'मीर'-ओ-'ग़ालिब' 'दाग़'-ओ-'हसरत' या 'जिगर' कोई न था

रात-भर ज़ुल्मत में लिपटी बस्तियाँ कहती रहीं

चाँद तारे कहकशाँ जुगनू क़मर कोई न था

देखने में यूँ ब-ज़ाहिर सब हमारे साथ थे

जब सरों पर धूप आई हम-सफ़र कोई न था

ख़ून के रिश्तों की गर्मी सर्द थी चारों तरफ़

सब तसल्ली दे रहे थे चारागर कोई न था

रिंद-ओ-ज़ाहिद शैख़-ओ-सूफ़ी सब के सब तिश्ना ही थे

किस को देते मय-कदा जब मो'तबर कोई न था

फिर ये सोचा लिख ही भेजूँ हाल-ए-दिल उस को मगर

उड़ चुके थे सब कबूतर नामा-बर कोई न था

ज़िंदगी-भर भीगती पलकें थीं उस की मुंतज़िर

हम से बढ़ कर ख़ुद से 'ज़ाकिर' बे-ख़बर कोई न था

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