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बदन के दोश पे साँसों का मक़बरा मैं हूँ - ज़ाकिर ख़ान ज़ाकिर कविता - Darsaal

बदन के दोश पे साँसों का मक़बरा मैं हूँ

बदन के दोश पे साँसों का मक़बरा मैं हूँ

ख़ुद अपनी ज़ात का नौहा हूँ मर्सिया मैं हूँ

बिला-सबब भी नहीं यासियत तबीअ'त में

अज़ल से ख़ाना-बदोशी का सिलसिला मैं हूँ

मिरा वजूद तुम्हारी बक़ा का ज़ामिन है

तुम्हारे अन-कहे जज़्बों का आइना मैं हूँ

बहारें जिस पे हों नाज़ाँ चमन भी रश्क करे

नज़र-नवाज़ रुतों का वो क़ाफ़िला मैं हूँ

बिछड़ के मुझ से अबस मंज़िलों की चाहत है

जिधर भी जाओगे हर-सम्त रास्ता मैं हूँ

उन आहटों पे मिरी वहम का गुमाँ कैसा

मैं कह चुका हूँ मिरी जान बारहा मैं हूँ

ग़ज़ल है कोई तो मैं भी हूँ लाज़मी हिस्सा

किसी हयात के मिसरे में क़ाफ़िया मैं हूँ

तुम्हें ख़बर हो तो देना पता मुझे 'ज़ाकिर'

जिसे तलाश है ख़ुद की वो गुम-शुदा मैं हूँ

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