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ऐ क़लंदर आ तसव्वुफ़ में सँवर कर रक़्स कर - ज़ाकिर ख़ान ज़ाकिर कविता - Darsaal

ऐ क़लंदर आ तसव्वुफ़ में सँवर कर रक़्स कर

ऐ क़लंदर आ तसव्वुफ़ में सँवर कर रक़्स कर

इश्क़ के सब ख़ारज़ारों से गुज़र कर रक़्स कर

अक़्ल की वुसअ'त बहुत है इश्क़ में फ़ुर्सत है कम

अक़्ल की अय्यारियों को दरगुज़र कर रक़्स कर

दर-ब-दर क्यूँ ढूँढता फिरता है नादीदा सनम

अपने दिल के आइने पर इक नज़र कर रक़्स कर

ये जहाँ इक मय-कदा कम-ज़र्फ़ है साक़ी तिरा

इस ख़राबे से परे शाम-ओ-सहर कर रक़्स कर

रुस्तम-ओ-दारा सिकंदर मिल गए सब ख़ाक में

बन के सरमद ज़िंदगी अपनी बसर कर रक़्स कर

इस ज़मीं पर जिस्म-ए-ख़ाकी ज़ेहन-ओ-दिल हो अर्श पर

यूँ कभी 'ज़ाकिर' रियाज़त में बिखर कर रक़्स कर

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