'ज़की' हमारा मुक़द्दर हैं धूप के ख़ेमे
हमें न रास कभी आया साएबान कोई
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इताब-ओ-क़हर का हर इक निशान बोलेगा
मेरे ख़्वाबों का कभी जब आसमाँ रौशन हुआ
दरीदा-जैब गरेबाँ भी चाक चाहता है
मेरे अंदर निहाँ है अक्स मिरा
कौन कहता है गुम हुआ परतव
सिमटे हुए जज़्बों को बिखरने नहीं देता
भरे तो कैसे परिंदा भरे उड़ान कोई
हम भी कहने लगे हैं रात को रात
गुमान होता है मुझ को तुम्हारे आने का