सिमटे हुए जज़्बों को बिखरने नहीं देता
ये आस का लम्हा हमें मरने नहीं देता
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बे-मकाँ मेरे ख़्वाब होने लगे
नूर ये किस का बसा है मुझ में
गुमान होता है मुझ को तुम्हारे आने का
मेरे ख़्वाबों का कभी जब आसमाँ रौशन हुआ
इताब-ओ-क़हर का हर इक निशान बोलेगा
तिरे बग़ैर कटे दिन न शब गुज़रती है
मेरे अंदर निहाँ है अक्स मिरा
दरीदा-जैब गरेबाँ भी चाक चाहता है
हम भी कहने लगे हैं रात को रात
रोज़ सुनता हूँ मैं हँसने की सदा