इताब-ओ-क़हर का हर इक निशान बोलेगा
मैं चुप रहा तो शिकस्ता मकान बोलेगा
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दरीदा-जैब गरेबाँ भी चाक चाहता है
अजनबी ख़ुशबू की आहट से महक उट्ठा बदन
मेरे अंदर निहाँ है अक्स मिरा
नूर ये किस का बसा है मुझ में
हम भी कहने लगे हैं रात को रात
कौन कहता है गुम हुआ परतव
भरे तो कैसे परिंदा भरे उड़ान कोई
तिरे बग़ैर कटे दिन न शब गुज़रती है
'ज़की' हमारा मुक़द्दर हैं धूप के ख़ेमे