दरीदा-जैब गरेबाँ भी चाक चाहता है
वो इश्क़ क्या है जो दामन को पाक चाहता है
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इताब-ओ-क़हर का हर इक निशान बोलेगा
भरे तो कैसे परिंदा भरे उड़ान कोई
कौन कहता है गुम हुआ परतव
रोज़ सुनता हूँ मैं हँसने की सदा
मेरे ख़्वाबों का कभी जब आसमाँ रौशन हुआ
बे-मकाँ मेरे ख़्वाब होने लगे
'ज़की' हमारा मुक़द्दर हैं धूप के ख़ेमे
हम भी कहने लगे हैं रात को रात
अजनबी ख़ुशबू की आहट से महक उट्ठा बदन
मेरे अंदर निहाँ है अक्स मिरा