मंज़िल जिसे समझते थे यारान-ए-क़ाफ़िला
पहुँचे जो उस जगह तो फ़क़त संग-ए-मील था
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आप पर जब से तबीअत आई
याद आए हैं उफ़ गुनह क्या क्या
तिरे नाज़-ओ-अदा को तेरे दीवाने समझते हैं
अहल-ए-दिल ने किए तामीर हक़ीक़त के सुतूँ
उलझी थीं जिन नसीम से कलियाँ ख़बर न थी
साफ़ कहिए कि प्यार करते हैं
वो तिरी ज़ुल्फ़ का साया हो कि आग़ोश तिरा
वाए नाकामी-ए-क़िस्मत कि भँवर से बच कर
दर्द-ए-दिल ने ली न थी करवट अभी
साग़र-ओ-जाम को छलकाओ कि कुछ रात कटे
तिरी जवान उमंगों को हो गया है क्या