मैं ने तन्हाइयों के लम्हों में
तुम को अक्सर क़रीब पाया है
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हुस्न जिस हाल में नज़र आया
अक़्ल ने तर्क-ए-तअल्लुक़ को ग़नीमत जाना
कितने ही फूल चुन लिए मैं ने
जुनूँ के कैफ़-ओ-कम से आगही तुझ को नहीं नासेह
मुझ को सुकूँ की चैन की पज़मुर्दगी से क्या
मरने के बअ'द कोई पशेमाँ हुआ तो क्या
साग़र-ओ-जाम को छलकाओ कि कुछ रात कटे
तू ही बता दे कैसे काटूँ
तिरी जवान उमंगों को हो गया है क्या
दर्द-ए-दिल ने ली न थी करवट अभी
आप पर जब से तबीअत आई
वो तिरी ज़ुल्फ़ का साया हो कि आग़ोश तिरा