कितने ही फूल चुन लिए मैं ने
कितने ही फूल रह गए बाक़ी
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तिरी जवान उमंगों को हो गया है क्या
रुमूज़-ए-इश्क़ की गहराइयाँ सलामत हैं
वाए नाकामी-ए-क़िस्मत कि भँवर से बच कर
लोग कहते रहे क़रीब है वो
साग़र-ओ-जाम को छलकाओ कि कुछ रात कटे
याद इतना है कि मैं होश गँवा बैठा था
ये रात यूँही बसर हो गई तो क्या होगा
ऐ दिल तिरी आहों में इतना तो असर आए
अक़्ल ने तर्क-ए-तअल्लुक़ को ग़नीमत जाना
जुनूँ के कैफ़-ओ-कम से आगही तुझ को नहीं नासेह
आज फिर उन से मुलाक़ात पे रोना आया
अहल-ए-दिल ने किए तामीर हक़ीक़त के सुतूँ