जुनूँ के कैफ़-ओ-कम से आगही तुझ को नहीं नासेह
गुज़रती है जो दीवानों पे दीवाने समझते हैं
Wasi Shah
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मंज़िल जिसे समझते थे यारान-ए-क़ाफ़िला
उलझी थीं जिन नसीम से कलियाँ ख़बर न थी
मुझ को सुकूँ की चैन की पज़मुर्दगी से क्या
आप पर जब से तबीअत आई
साफ़ कहिए कि प्यार करते हैं
अक़्ल ने तर्क-ए-तअल्लुक़ को ग़नीमत जाना
तू ही बता दे कैसे काटूँ
याद आए हैं उफ़ गुनह क्या क्या
साग़र-ओ-जाम को छलकाओ कि कुछ रात कटे
मैं ने तन्हाइयों के लम्हों में
वो तिरी ज़ुल्फ़ का साया हो कि आग़ोश तिरा
ये रात यूँही बसर हो गई तो क्या होगा