हुस्न जिस हाल में नज़र आया
हम ने उस हाल में परस्तिश की
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वाए नाकामी-ए-क़िस्मत कि भँवर से बच कर
याद आए हैं उफ़ गुनह क्या क्या
जुनूँ के कैफ़-ओ-कम से आगही तुझ को नहीं नासेह
ये रात यूँही बसर हो गई तो क्या होगा
वो तिरी ज़ुल्फ़ का साया हो कि आग़ोश तिरा
तू ही बता दे कैसे काटूँ
शिकवा नहीं दुनिया के सनम-हा-ए-गिराँ का
साग़र-ओ-जाम को छलकाओ कि कुछ रात कटे
तिरे नाज़-ओ-अदा को तेरे दीवाने समझते हैं
दिल है बीमार क्या करे कोई
लोग कहते रहे क़रीब है वो
मंज़िल जिसे समझते थे यारान-ए-क़ाफ़िला