अहल-ए-दिल ने किए तामीर हक़ीक़त के सुतूँ
अहल-ए-दुनिया को रिवायात पे रोना आया
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वाए नाकामी-ए-क़िस्मत कि भँवर से बच कर
मुझ को सुकूँ की चैन की पज़मुर्दगी से क्या
उलझी थीं जिन नसीम से कलियाँ ख़बर न थी
साफ़ कहिए कि प्यार करते हैं
दूसरों को फ़रेब दे दे कर
रुमूज़-ए-इश्क़ की गहराइयाँ सलामत हैं
याद आए हैं उफ़ गुनह क्या क्या
साग़र-ओ-जाम को छलकाओ कि कुछ रात कटे
आज फिर उन से मुलाक़ात पे रोना आया
याद इतना है कि मैं होश गँवा बैठा था
आप पर जब से तबीअत आई