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तिरी जुस्तुजू तिरी आरज़ू मुझे काम तेरे ही काम से - ज़की काकोरवी कविता - Darsaal

तिरी जुस्तुजू तिरी आरज़ू मुझे काम तेरे ही काम से

तिरी जुस्तुजू तिरी आरज़ू मुझे काम तेरे ही काम से

तू ही ज़िंदगी का है मुद्दआ' मिरा नाम तेरे ही नाम से

तिरा हुस्न है मिरी ज़िंदगी तिरा इश्क़ है मिरी आशिक़ी

तिरी फ़िक्र है मिरी शाइ'री तिरा ज़िक्र मेरे कलाम से

तिरे हुस्न ने ये ग़ज़ब किया कि हर अहल-ए-दिल हुआ मुब्तला

जिसे देखा तेरा ही सैद था न कोई बचा तिरे दाम से

गई आधी रात गुज़र मगर न तो आए ख़ुद न ली कुछ ख़बर

मैं तड़प रहा हूँ इधर उधर यूँही इंतिज़ार में शाम से

मिरे दिलरुबा मिरे दिलरुबा न ये लुत्फ़ है न कोई अता

अगर आना है तो फिर आ भी जा न यूँ झाँक रौज़न-ए-बाम से

ये ग़लत है कुफ़्र है साक़िया मुझे तेरा ही रहा आसरा

तू पिला पिला तू पिला पिला नहीं इज्तिनाब हराम से

मैं वो तिश्ना-लब हूँ कि साक़िया है अज़ल से ख़ुश्क मिरा गला

न ज़बाँ को मय का मिला मज़ा न लब-आश्ना हुए जाम से

तिरा सोज़-ए-इश्क़ है ज़िंदगी तिरा जज़्ब-ए-हुस्न है बे-ख़ुदी

तुझे पा के ख़ुश है तिरा 'ज़की' नहीं काम ऐश-ए-दवाम से

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