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आज फिर उन से मुलाक़ात पे रोना आया - ज़की काकोरवी कविता - Darsaal

आज फिर उन से मुलाक़ात पे रोना आया

आज फिर उन से मुलाक़ात पे रोना आया

भूली-बिसरी हुई हर बात पे रोना आया

ग़ैर के लुत्फ़-ओ-इनायात पे रोना आया

और अपनों की शिकायात पे रोना आया

अक़्ल ने तर्क-ए-तअल्लुक़ को ग़नीमत जाना

दिल को बदले हुए हालात पे रोना आया

अहल-ए-दिल ने किए ता'मीर हक़ीक़त के सुतूँ

अहल-ए-दुनिया को रिवायात पे रोना आया

हम न समझे थे कि रुस्वाई-ए-उल्फ़त तो है

ऐ जुनूँ तेरी ख़ुराफ़ात पे रोना आया

वो भी दिन थे कि बहुत नाज़ था अपने ऊपर

आज ख़ुद अपनी ही औक़ात पे रोना आया

मनअ' करते मगर इस तरह से लाज़िम भी न था

आप के तल्ख़ जवाबात पे रोना आया

छोड़िए भी मिरी क़िस्मत में लिखा था ये भी

आप को क्यूँ मिरे हालात पे रोना आया

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