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दरिया का चढ़ाव बाँध लेना - ज़काउद्दीन शायाँ कविता - Darsaal

दरिया का चढ़ाव बाँध लेना

दरिया का चढ़ाव बाँध लेना

सैलाब में नाव बाँध लेना

शहरों के ग़ुबार उड़ रहे हैं

सहरा की हवाओ बाँध लेना

बारिश में फिरा हूँ शब हुई है

ज़ुल्फ़ों की घटाओ बाँध लेना

ज़ख़्मों की नुमाइशें नहीं ख़ूब

ये ज़ीस्त के घाव बाँध लेना

आमादा-ए-सरकशी हैं जज़्बात

मेरे क़रीब आओ बाँध लेना

आलम की रगें सी टूटती हैं

जिस्मों के खिंचाव बाँध लेना

क्यूँ रुख़ पे हवाइयाँ उड़ी हैं

फिर हम से लगाव बाँध लेना

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