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संग किसी के चलते जाएँ ध्यान किसी का रक्खें - ज़करिय़ा शाज़ कविता - Darsaal

संग किसी के चलते जाएँ ध्यान किसी का रक्खें

संग किसी के चलते जाएँ ध्यान किसी का रक्खें

हम वो मुसाफ़िर साथ अपने सामान किसी का रक्खें

रंग-बिरंगे मंज़र दिल में आँखें ख़ाली ख़ाली

हम आवाज़ किसी को दें इम्कान किसी का रक्खें

इक जैसे हैं दुख सुख सब के इक जैसी उम्मीदें

एक कहानी सब की क्या उनवान किसी का रक्खें

दिन भर तो हम पढ़ते फिरें अपनी ग़ज़लें नज़्में

रात सिरहाने अपने हम दीवान किसी का रक्खें

उखड़ी उखड़ी उल्टी सीधी 'शाज़' हैं उस की बातें

आओ कुछ दिन इस दिल को मेहमान किसी का रक्खें

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