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मुझ तक निगाह आई जो वापस पलट गई - ज़करिय़ा शाज़ कविता - Darsaal

मुझ तक निगाह आई जो वापस पलट गई

मुझ तक निगाह आई जो वापस पलट गई

फैला जो मेरा शहर तो पहचान घट गई

मैं चुप रहा तो आँख से आँसू उबल पड़े

जब बोलने लगा मिरी आवाज़ फट गई

इस का नहीं है रंज कि तक़्सीम घर हुआ

फूलों भरी जो बेल थी आँगन में कट गई

जीने की ख़्वाहिशों ने सभी ज़ख़्म भर दिए

आँखों से अश्क मेज़ से तस्वीर हट गई

दस्त-ए-बहार-ए-रंग ने ख़ुश्बू बिखेरी थी

फिर अपने आप फूल से तितली लिपट गई

मंज़र जो चाहता हूँ वही देखता हूँ मैं

मैं क्या करूँगा 'शाज़' जो ये धुँद छट गई

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