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क्या नज़ारा था मेरी आँखों में - ज़करिय़ा शाज़ कविता - Darsaal

क्या नज़ारा था मेरी आँखों में

क्या नज़ारा था मेरी आँखों में

जब वो सारा था मेरी आँखों में

एक तूफ़ान था कहीं बरपा

और धारा था मेरी आँखों में

हाल कैसा ये तू ने कर डाला

कितना प्यारा था मेरी आँखों में

कुछ भी देखा नहीं था मैं ने जब

हर नज़ारा था मेरी आँखों में

चाँद जब तक नज़र न आया था

तारा तारा था मेरी आँखों में

जब किया इश्क़ का सफ़र आग़ाज़

कब किनारा था मेरी आँखों में

कितनी आँखों से 'शाज़' बचते हुए

कोई हारा था मेरी आँखों में

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