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खोया हुआ था हासिल होने वाला हूँ - ज़करिय़ा शाज़ कविता - Darsaal

खोया हुआ था हासिल होने वाला हूँ

खोया हुआ था हासिल होने वाला हूँ

मैं काग़ज़ पर नाज़िल होने वाला हूँ

छोड़ आया हूँ पीछे सब आवाज़ों को

ख़ामोशी में दाख़िल होने वाला हूँ

ख़ुद ही अपना रस्ता देख रहा हूँ मैं

ख़ुद ही अपनी मंज़िल होने वाला हूँ

मुझ को शरीक-ए-महफ़िल भी कब समझें वो

मैं जो जान-ए-महफ़िल होने वाला हूँ

जाने क्या कह जाएगा डर लगता है

आईने के मुक़ाबिल होने वाला हूँ

रूह सुलगती और पिघलती जाती है

एक बदन में शामिल होने वाला हूँ

आख़िर कब तक अपने नाज़ उठाऊँ 'शाज़'

आज अपना ही क़ातिल होने वाला हूँ

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