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धूप सरों पर और दामन में साया है - ज़करिय़ा शाज़ कविता - Darsaal

धूप सरों पर और दामन में साया है

धूप सरों पर और दामन में साया है

सुन तो सही जो पेड़ों ने फ़रमाया है

कैसे कह दूँ बीच अपने दीवार है जब

छोड़ने कोई दरवाज़े तक आया है

उस से आगे जाओगे तब जानेंगे

मंज़िल तक तो रास्ता तुम को लाया है

बादल बन कर चाहे कितना ऊँचा हो

पानी आख़िर मिट्टी का सरमाया है

आख़िर ये नाकाम मोहब्बत काम आई

तुझ को खो कर मैं ने ख़ुद को पाया है

'शाज़' मोहब्बत को अपनाना खेल नहीं

अपने हाथ से अपना हाथ छुड़ाया है

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