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कितनी ताबीरों के मुँह उतरे पड़े हैं - ज़का सिद्दीक़ी कविता - Darsaal

कितनी ताबीरों के मुँह उतरे पड़े हैं

कितनी ताबीरों के मुँह उतरे पड़े हैं

ख़्वाब अब तक हाथ फैलाए खड़े हैं

राह में जो मील के पत्थर गड़े हैं

रहनुमाओं की तरह शश्दर खड़े हैं

कोई अपने आप तक पहुँचे तो कैसे

आगही के कोस भी कितने कड़े हैं

ज़िंदगी हम तुझ से भी लड़ कर जिएँगे

हम जो ख़ुद अपने ही साए से लड़े हैं

दोस्तो सर पर भी आ जाता है सूरज

धूप कम है इस लिए साए बड़े हैं

हम को भी कुछ वक़्त दे ऐ जान-ए-महफ़िल

हम ने भी दो एक अफ़्साने गढ़े हैं

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