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ख़ामोशी ख़ुद अपनी सदा हो ये भी तो हो सकता है - ज़का सिद्दीक़ी कविता - Darsaal

ख़ामोशी ख़ुद अपनी सदा हो ये भी तो हो सकता है

ख़ामोशी ख़ुद अपनी सदा हो ये भी तो हो सकता है

सन्नाटा ही गूँज रहा हो ये भी तो हो सकता है

मेरा माज़ी मुझ से बिछड़ कर क्या जाने किस हाल में है

मेरी तरह वो भी तन्हा हो ये भी तो हो सकता है

सहरा सहरा कब तक मैं ढूँडूँ उल्फ़त का इक आलम

आलम आलम इक सहरा हो ये भी तो हो सकता है

अहल-ए-तूफ़ाँ सोच रहे हैं साहिल डूबा जाता है

ख़ुद उन का दिल डूब रहा हो ये भी तो हो सकता है

इन मध-माती आँखों पर ये झूम के आना ज़ुल्फ़ों का

बादा-कशों को आम सला हो ये भी तो हो सकता है

यारो मेरा क्या है कफ़-ए-क़ातिल की रानाई देखो

ख़ून ही क्यूँ हो रंग-ए-हिना हो ये भी तो हो सकता है

सारी महफ़िल में इक तुम से उस को तग़ाफ़ुल क्यूँ है 'ज़का'

कोई ख़ास अंदाज़-ए-वफ़ा हो ये भी तो हो सकता है

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