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इस दर पे मुझे यार मचलने नहीं देते - ज़ैनुल आब्दीन ख़ाँ आरिफ़ कविता - Darsaal

इस दर पे मुझे यार मचलने नहीं देते

इस दर पे मुझे यार मचलने नहीं देते

अरमान मिरे जी के निकलने नहीं देते

दम दम में ख़बर पहुँचे है जो आने की अपनी

है जान लबों पर वो निकलने नहीं देते

आशोब-ए-क़यामत से ज़ि-बस ख़ौफ़ है सब को

दो चार क़दम भी उन्हें चलने नहीं देते

जाता है सफा-ए-रुख़-ए-दिलदार पे जब दिल

मक़्दूर तक अपने तो फिसलने नहीं देते

आदत में करो फ़र्क़ न तुम अपनी निगह से

क्यूँ ज़हर उसे आज उगलने नहीं देते

वो पर्दा-नशीनी की रिआयत है तुम्हारी

हम बात भी ख़ल्वत से निकलने नहीं देते

ये दस्त-बसर रहने का 'आरिफ़' वो महल है

उस जा कफ़-ए-अफ़्सोस भी मलने नहीं देते

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