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अच्छा हुआ कि दम शब-ए-हिज्राँ निकल गया - ज़ैनुल आब्दीन ख़ाँ आरिफ़ कविता - Darsaal

अच्छा हुआ कि दम शब-ए-हिज्राँ निकल गया

अच्छा हुआ कि दम शब-ए-हिज्राँ निकल गया

दुश्वार था ये काम पर आसाँ निकल गया

बक बक से नासेहों की हुआ ये तो फ़ाएदा

मैं घर से चाक कर के गिरेबाँ निकल गया

फिर देखना कि ख़िज़्र फिरेगा बहा बहा

गर सू-ए-दश्त मैं कभी गिर्यां निकल गया

ख़ूबी सफ़ा-ए-दिल की हमारी ये जानिए

सीने के पार साफ़ जो पैकाँ निकल गया

हंगामे कैसे रहते हैं अपने सबब से वाँ

हम से ही नाम-ए-कूचा-ए-जानाँ निकल गया

फ़ुर्क़त में कार-ए-वस्ल लिया वाह वाह से

हर आह-ए-दिल के साथ इक अरमाँ निकल गया

बेहतर हुआ कि आए वो महफ़िल में बे-नक़ाब

'आरिफ़' ग़ुरूर-ए-माह-ए-जबीनाँ निकल गया

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