रख दिया ख़ल्क़ ने नाम उस का क़यामत ऐ 'ज़ेब'
कोई फ़ित्ना जो ज़माने से उठाया न गया
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मुझ से बढ़ कर है कहीं उन का मक़ाम ऐ साक़ी
ख़ुद को दुनिया में जो राज़ी-ब-रज़ा कहते हैं
ख़ाक पर ही मिरे आँसू हैं न दामन में कहीं