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नियाज़-ओ-नाज़ के साग़र खनक जाएँ तो अच्छा है - ज़ेब बरैलवी कविता - Darsaal

नियाज़-ओ-नाज़ के साग़र खनक जाएँ तो अच्छा है

नियाज़-ओ-नाज़ के साग़र खनक जाएँ तो अच्छा है

तिरे मय-कश तिरे दर पर भटक जाएँ तो अच्छा है

शरारे सोज़-ए-पैहम के भड़क जाएँ तो अच्छा है

मोहब्बत की हसीं राहें चमक जाएँ तो अच्छा है

शराब-ए-शौक़ के साग़र छलक जाएँ तो अच्छा है

फ़ज़ाएँ बादा-ख़ाने की महक जाएँ तो अच्छा है

तिरे हँसने से कलियों के हसीं रंग-ए-तबस्सुम में

ये क़तरे ख़ून-ए-अरमाँ के छिटक जाएँ तो अच्छा है

नुमायाँ हैं सर-ए-मिज़्गाँ जो मायूसी के आलम में

वो आँसू तेरे दामन पर टपक जाएँ तो अच्छा है

सर-ए-बज़्म-ए-मोहब्बत काश उन आँखों के दर्पन में

मोहब्बत के हसीं मंज़र चमक जाएँ तो अच्छा है

सर-ए-मय-ख़ाना साक़ी आज इज़्न-ए-आम हो जाए

तिरे मय-नोश पी पी कर बहक जाएँ तो अच्छा है

मोहब्बत में मिरे बेताब दिल की धड़कनें हमदम

तिरी आग़ोश में आ कर जो थक जाएँ तो अच्छा है

मज़ाक़-ए-बादा-नोशी तिश्ना-ए-एहसास है साक़ी

नए अंदाज़ से साग़र खनक जाएँ तो अच्छा है

मोहब्बत में नहीं मुमकिन पहुँचना हद्द-ए-मंज़िल तक

मुसाफ़िर तेरी राहों में भटक जाएँ तो अच्छा है

नुमायाँ हों न आँखों से कहीं इस्मत मोहब्बत की

ये शो'ले दिल के दिल ही में दहक जाएँ तो अच्छा है

जो हैं मुरझाई कलियाँ 'ज़ेब' दामान-ए-गुलिस्ताँ में

हवा के रुख़ बदलने से महक जाएँ तो अच्छा है

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